
History of Temple
एकदंत कथा के अनुसार इस शिवलिंग का इतिहास पुराणों से जुड़ा हुआ है शिवपुराण में वर्णित कथा के
अनुसार एक बार ब्रह्मा और विष्णु का आपस में घोर युद्ध हुआ तो भगवान शिव ने महाप्रलय को देखा तो
बे चुप ना रह सके तो इस युद्ध को शांत करने के लिए इन दोनों के बीच लिंग रूप में प्रकट होकर खड़े
हो गए और इस स्थान पर प्रकट होकर युद्ध को शांत किया था
दूसरी कहानी यह है कि यहां पर बहुत सारे गुर्जर रहते थे वह अपने दूध के मटके इस शिवलिंग रुपी चट्टान पर रखते थे और जब चटान ऊपर उठती तो भैरव जी से तराश कर इसको छोटा कर देते पर यह फिर ऊंची हो जाती और जब राजा को इस बात का पता चला तो उसकी खुदवाई करवाई विद्वानों से परामर्श किया उन्होंने श्रावण मास में शिव पूजन का परामर्श दिया और यह शिव पार्वती की प्रतिमा प्रकट हुई यह पत्थर का शिवलिंग 5:30 फुट ऊंचा है इसके बिल्कुल साथ सटा हुआ यानी 2 इंच के फैसले पर एक छोटा पत्थर जो इससे करीब डेढ़ फुट छोटा है जिसे अर्धनारीश्वर का पार्वती भाग माना जाता है 15 जनवरी तक शिव और पार्वती का फासला कम हो जाता है और इसके बाद फिर बढ़ना शुरू हो जाता है यहां आकर लोग मन्नत मांगते हैं और उनके पूरे होने पर यहां पर लोग यात्राएं लेकर आते हैं शिवरात्रि के दिन यहां 4 दिन का मेला लगता है और लाखों लोग दर्शन के लिए आते हैं पंक्ति में खड़े खड़े दर्शनों की बारी कई बार 66 घंटो के बाद आती है इस मंदिर में हर सोमवार को लंगर लगता है यहां पर एक प्रबंधक कमेटी है जिसके प्रबंधक श्री ओमप्रकाश कटोच हैं जिनके संरक्षण में इस मंदिर का बहुत अच्छा प्रबंधन है यात्रियों की सुविधा के लिए उन्होंने लोगों के सहयोग से तीन मंजिला सराय बनाई है कहते हैं कि इस शिवलिंग की पूजा वैदिक काल से ही होती आ रही है कहते हैं कि इस मंदिर की दीवार जिसके अवशेषों पर बारंबार मरम्मत की जाती रही है जो अभी भी है तो इस मंदिर को महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था और वह स्वयं प्रतिवर्ष बृजेश्वरी कांगड़ा ज्वालामुखी तथा काठगढ़ के इस मंदिर में भगवान शिव की अर्चना किया करते थे
भगवान रामचंद्र के अनुज भरत द्वारा पूजा अर्चना
काठगढ़ की महत्ता के बारे में एक अन्य कथा के अनुसार बताया जाता है कि भगवान रामचंद्र के अनुज भरत जब अपने ननिहाल कैकेई देश जाते तो बिपाशा यानी ब्यास पार करने के बाद स्नान करके भगवान शिव की अर्चना करते और यही विश्राम करते थे
काठगढ़ गांव का नामकरण
किवदंतियों के अनुसार काठगढ़ ग्राम वर्तमान 4,5 गांवों का सामूहिक कस्बा था जिनमें इंदौरा बैरियर से ब्यास नदी के तटवर्ती क्षेत्र घनी आबादी में बसे थे इस कस्बे की विशालता के बारे में कहा जाता है कि यहां पर 22 तेल निकालने वाले कोल्हू चला करते थे इस नगर के एक भाग में मुकदमों के फैसले होते थे तो दूसरी ओर गांव काठगढ़ में अपराधियों को काठ लगाया जाता था इसलिए इस गांव का नाम काठगढ़ पड़ गया इन दोनों स्थानों के प्रमाण अब भी दिखाई देते हैं अब भी इन क्षेत्रों की भूमि की खुदाई की जावे तो पुरानी वस्तुओं के अवशेष प्राचीन समय की इंटे मिट्टी के बर्तन विभिन्न प्रकार की हड्डियों व मकानों की निवे भूमि के निचले भाग में मिलती हैं इन अवशेषों से प्रमाणित होता है कि इस देव स्थान के इर्द-गिर्द के क्षेत्रों में काफी उत्तल पुथल हो चुकी है परंतु इस पावन भूमि से प्रकट स्वयंभू शिवलिंग हर प्रकार की भौगोलिक परिस्थितियों से गुजरता रहा और श्रद्धालु भक्त इस की आराधना करके मनवांछित फल प्राप्त करते रहे
आदि काल से इस प्रकार निरंतर चले आ रहे इस स्थान की प्रगति ना हो सकी जो की होनी चाहिए थी इस स्थान पर अपनी सीमित अवस्था में भक्त श्रद्धालु आते रहे और भोजकी प्रथा के अनुसार इस व्यवस्था के सुधार के लिए कोई ध्यान ना दिया गया वर्ष में एक बार ही लोग महाशिवरात्रि पर्व को मनाने हेतु स्थान पर सामूहिक रुप से एकत्रित होते थे और उन द्वारा चढ़ाया गया धन पुजारी अपने परिवार पोषण में ही व्यय करते रहे समय ने करवट बदली शिव प्रेरणा से इस मंदिर की चतुर्मुखी उन्नति के लिए इस स्थान के इर्द-गिर्द के गांव के लोगों ने इकट्ठे होकर वर्ष 1984 में प्राचीन शिव मंदिर सुधार सभा का गठन किया इस संस्था ने अपने गठन काल से लेकर अब तक बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किए हैं पहले यह मंदिर साधारण सा प्रतीत होता था परंतु अब इस मंदिर पर आने वाले प्रत्येक भक्त श्रद्धालुओं को एक अत्यंत गौरवशाली अनुभव होता है
महाराजा रणजीत सिंह द्वारा महादेव मंदिर का निर्माण
इस पावन देव स्थान की पूजा-अर्चना वैदिक काल से होती आई है, परंतु यह स्वयं भू प्रकट शिवलिंग खुले आकाश में सर्दी गर्मी को सहन करते हुए श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देता रहा ज्यों ही परम धर्मो हिंदू सिख समानता के प्रतीक महाराज रणजीत सिंह जी ने राज गद्दी संभाली तो अपने संपूर्ण राज्य में भ्रमण किया तथा राज्य सीमा के अंतर्गत आने वाले सभी धार्मिक स्थलों के सुधार के लिए सरकारी कोष से सेवा करने का संकल्प किया इस आज शिवलिंग के दर्शन करके महाराजा रणजीत सिंह जी का हृदय प्रफुल्लित हो गया उन्होंने तुरंत इस आज शिवलिंग पर शिव मंदिर बनवा कर विधि पूर्वक पूजा अर्चना की
कहा जाता है कि इस स्थान के निकट प्राचीन कुएं का जल महाराजा रणजीतसिंह अपने काल में शुभ कार्य प्रारंभ करने के लिए यहां से मंगवाते थे क्योंकि यह जल बड़ा पावन व रोग निवारक माना जाता रहा है कई साधु महात्मा इस देवस्थल को तांत्रिक स्थान मानते हैं उन का कथन है कि यह विशाल शिवलिंग अष्टकोणीय है मुख्य मंदिर समीपवर्ती कुआ बावड़ी समाधि तथा परिक्रमा में बना हुआ चबूतरा अष्टकोणीय है यह शिव मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है और मंदिर की कुछ ही दूरी पर शंभू धारा खड्ड पश्चिम दिशा की ओर बहती है दक्षिण दिशा में ब्यास नदी आकर्षक मनोहारी दृश्य दर्शाती हुई एक दूसरे में विलीन हो जाती है इस मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर दूर दूर तक मैदानी भू-भाग दिखाई देता है जिसका भक्तजन आनंद लेते हुए तथा प्रभु चरणों में श्रद्धा सुमन भेंट करते हुए अपने भावी जीवन को सफल करने की कामना करते हैं इस देवस्थान की पवित्रता वह महत्ता एवं शक्ति के अनुरूप ही इसकी मान्यता वह प्रसिद्धि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है
सिकंदर का वापिसी स्थल
ऐतिहासिक तौर पर प्रसिद्ध विश्व विजेता मकदूनिया के राजा सिकंदर का इस मंदिर के साथ संबंध जुड़ा हुआ है जनश्रुतियोंके अनुसार सिकंदर इस देवस्थान से वापस चला गया था प्रसिद्ध इतिहासकार श्री सुखदेव सिंह चरक प्रोफेसर जम्मू विश्वविद्यालय ने अपनी बहु चर्चित पुस्तक हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ हिमालयन स्टेट में सिकंदर के बारे में लिखा है कि वह
दिग्विजय करता हुआ जब काठगढ़ पहुंचा तब उसकी सेना का उत्साह समाप्त हो गया और वह इसी स्थान से वापस स्वदेशलोटा था पठानकोट के ही श्री प्रवीण गुप्ता ने अपनी पुस्तक अपना शहर पठानकोट में लिखा है कि सिकंदर महान मकदूनियाका राजा था उसने अपनी दिग्विजय अभियान में फरवरीईस्वी पूर्व ओहिंद के निकट नावो के पुल से सिंधु नदीपार कर भारत पर आक्रमण किया उस समय पंजाब तथा सिंध में अनेक छोटे छोटे राज्य थे जो आपस में द्वेष की भावना रखते थे इनमें से कुछ राजतंत्र कुछ गणराज्य तथा कुछ नगर राज्य थे सिकंदर का अंतिम कैंप व्यास नदी के किनारे लगा माना जाता है जो संभवत मीरथल के पास है व्यास नदी की ओर बढ़ते हुए सिकंदर ने इन कम ऊंची पहाड़ियों को छुआ उसने संभवता जो मार्ग अपनाया वह अखनूर से सांबा शकरगढ़ मीरथल की ओर जाता है यूनानी आक्रमणकारी को भारत विजय अभियान पठानकोट के पास व्यास नदी के किनारे आकर ठंडा पड़ गया क्योंकि यहां के लोगों की देशप्रेम और वीरता को देखते हुए उसके सैनिकों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया परिणाम स्वरुप सिकंदर को अपनी योजना को बदलना पड़ा I कहा जाता है कि उस समय विश्व विजेता सिकंदर की सेनाओं का पड़ाव काठगढ़ में ही था प्रातः काल वह जब सोकर उठा तो गुड विचारों में खो गया उसके मस्तिष्क में यह विचार घर कर गया कि मेरे बहादुर सैनिकों ने इतना विस्तृत विश्व जीतने पर इस स्थान पर आ कर आगे बढ़ने से जो इनकार किया है वह इस शिवलिंग की जैविक महानता के कारण हुआ है इसलिए इस शिवलिंग के चारों ओर की जगह को समतल करके मोटी चारदीवारी बनवाई बैठने के लिए व्यास नदी की ओर चारदीवारी के कोनो पर अष्टकोणीय चबूतरे बनाए ताकि यात्री यहां से व्यास का प्राकृतिक नैसर्गिकता का आनंद अनुभव कर सके तथा यूनानी सभ्यता की शॉप स्थापित की जा वे ताकि आने वाली पीढ़ियां स्थान को सिकंदर की वापसी स्थल के रूप में स्मरण करती रहें जो कि आज भी मौजूद है
शिवलिंग का प्रकट होना
काठगढ़ महादेव का चमत्कारिक महत्व
आदि काल से ही भगवान शिव अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करने में उतावले रहते हैं समय पर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ति ब भक्ति भावना को सुदृढ़ करने के लिए चमत्कारिक रूप से वरदान देने वाले भोले भंडारी कहे जाते हैं अपने इसी भोलेपन के द्वारा भक्तों की भूलों को भी सुधारने में दयावान रहते हैं भगवान शिव अपने भक्तों को उतावलेपन में वरदान देकर अपने आप को भी कष्ट में डालने से पीछे नहीं हटे जिस संबंधी अनेकों घटनाएं एवं चरित्र पौराणिक कथाओं में मिलते हैं इसी भांति काठगढ़ महादेव आद स्वयं भू प्रकट शिवलिंग के रूप में आज के युग में भी अपनी दयालुता ब चमत्कारीता के लिए विख्यात है ऐसे ही कई उदाहरण हैं जो कि वर्तमान समय में उजागर हुए हैं
एक बार एक साधु महात्मा जोकि सीमावर्ती गांव में डेरा डाले हुए थे इस देवस्थान में माथा टेकने के लिए आए तो उस समय पुजारी मंदिर में उपस्थित नहीं था काठगढ़ महादेव के शिवलिंग रूप के आगे भक्तजनों द्वारा कुछ धनराशि चढ़ाई हुई थी महात्मा ने अज्ञानवश पंचभूतों में से एक भूत लोभ के वशीभूत होकर मंदिर में अंदर व बाहर इधर-उधर किसी को उपस्थित ना पाकर धनराशि को उठाकर चलता बनाए महात्मा अज्ञानतावश भूल गया कि उसने जो कृत्य किया है कहां तक उचित है कुछ समय बीत गया वही महात्मा अचानक एक दिन इसी देवस्थान पर स्वयं आया पर नतमस्तक होकर काठगढ़ महादेव से अपनी भूल के लिए ऊंची ऊंची आवाज में अंतरनाद करने लगा जिसकी ध्वनि सुनकर इर्द-गिर्द के कुछ लोग ब कुछ भक्तजन जो दर्शनार्थ आए हुए थे भौचक्के रह गए कि यह क्या मामला है किसी की समझ में कुछ ना आया साधु महात्मा की आंखों में अविरल आंसुओं की धारा ब वानी में क्षमा याचना के स्वर प्रस्फुटित हो रहे थे आखिर एक भक्त ने महात्मा से पूछा कि महात्मा जी ऐसा क्या हुआ है जो आप की दयनीय अवस्था प्रकट कर रही है उस महात्मा ने अपनी की हुई भूल का सारा वृत्तांत भक्तों के समक्ष बताया वह अपनी भूल को स्वीकार करते हुए काठगढ़ महादेव के Arpan उठाई राशि से अधिक राशि वह प्रसाद समय बनाकर भगवान शिव को अर्पण करते हुए भक्तजनों में बांटा तथा अपने अपराध की क्षमा याचना की भोलेनाथ ने अपने भोलेपन की मेहता अनुसार उस समय साधु महात्मा को क्षमादान दे दिया
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